Sunday, September 29, 2019

अनकही

पेड़ों का दर्द, बादलों ने समझा
और बरस गये।
इन्सानों के दर्द को इन्सान ना समझा
कितने हैं  जो रोटी को तरस गये।

पशु लावारिस सड़कों पर, पंछी बेघर आसमानों में भटक रहे।
इन्सान  दिमागवाला अधर्मी,  रिश्वत बेहिसाब गटक रहे।
 कौन सुने किसकी, किसको सुनाई दे रही सिसकी।
जो सत्ता के मद में  चूर है  जिसपे पैसा   भरपूर  है ।
दुनियां के दुख क्यों  देखे।
आखों पर काला चश्मा हो
तो दुख तो उससे कोसों दूर है।
गृहस्थी लिया बैठा इन्सान बक्त के हाथों मजबूर है।
इन्सान धरती पर, सोचता तो है चन्द्रमा के बारे में
करता है मन्गल की कामना  मगर इन्सानियत से कितना दूर है।


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