Friday, February 22, 2008

साथी


सागर में चलती नाव पर , बैठे मांझी सा प्यासा हूँ ,
तेरे शहर में जो पढ़ा ना गया ,
बंद लिफाफे में पड़ा वो कागज़ का टुकडा हूँ ,
चेहरे देखते थे मुझमे रोज तुम,टूटकर गिरा हूँ,
गिरे हुए को उठाकर,
खिड़की से फैंका गया वो मैं आईने का टुकडा हूँ ,
चुना तुमने मुझे, सजाया जुल्फों में,
महक जाने पर, मुरझाने पर, सूख जाने पर ,
शामिल कर दिया गया कूड़े के ढेर में ,मैं वो गुलाब हूँ,बात करते थे,
पढ़ते थे साथ कदम दो पीछे चलते थे तुम,
नोट्स पढ़कर पास हुए मेरे ,इस्तेमाल किया गया वो लड़का हूँ ,
कभी पहनकर इतराते थे तुम,बंद अलमारी में पढ़ा हुआ ,
मैं तेरा मनपसंद वो लिबास हूँ ,
होंठों तक ले गए, मुझे चूमा,
छोड़ दिया बची चाय की शक्ल में,
वो अहसास हूँ ,
रहा हूँ साथ तुम्हारे, पर ना देखा गया,
तुम्हारी खुली आंखों का में वो खवाब हूँ ,
तुम्हारे भेजे गए पत्रों का, चाहतों का,
सवालों का जो ना लौटकर आया कभी वो जबाव हूँ ,
ना बनाया कभी, ना तोडा कभी,
इन्तजार करती हो नए रिश्तों का ,
घर की चोखट पर खड़ी हो, मैं वो दरवाजा हूँ ,
जो दिल के करीब हूँ .

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